राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव : तराईवासियों का सहारा

  

                   विक्रम संवत २०१२ कार्तिक महिने मे ( सन् १९५५) मे नेपाल के बर्दिया जिले के पदुमपुर कोठार ( जमिन्दार आवास ) मे बाला प्रसाद  के पौत्र, नेवल किशोर के पुत्र के रुप मे इनका जन्म हुवा और जिला मुख्यालय गुलरिया मे शिक्षा दिक्षा हुई।  ये बालपन से ही अतीव तीक्ष्ण बुद्धि के, आज के कम्प्युटर सदृश थे।  अपने घर  परिवार नातेदार रिस्तेदार के अलावा गांव बस्ती तथा अपने जमिनदारी के क्षेत्र  के लोग, जिला और देश के बडे लोग, सामन्त जागिरदार जिस जिस से इनका सम्पर्क हुवा और किसकी बेटी बेटा की शादी कहाँ किसके यहाँ से हुई, घर सम्पति जमीन,  हैसियत मकान,जमीन का  नम्बर ,व्यवसाय , आदि जो भी बातचीत होती थी सब दिमाग मे रिकार्ड हो जाता था और फिर कभी बात होने पर तुम्हारे  तो यह ऐसा था / है न ? पूछ बैठते तो आदमी चकित हो जाता था। 

            बर्दिया जिला  उस समय का बहुत ही पिछडा  इलाका था शिक्षा, स्वास्थ्य , सडक , पानी बिजली कुछ भी आधुनिक विकास नही था।  परम्परागत राणा शासन  का अंत होकर, सन् 1958  मे संसदीय व्यवस्था की स्थापना और दो वर्ष बाद ही 1961  मे इसका भी अंत होकर राजा के नेतृत्व मे निर्दलीय पंचायत व्यवस्था की स्थापना हो चुकी थी , नेतृत्व करनेवाला  समाज मे अपनी सेवा और चरित्र बल से स्वयं अपना  उच्च स्थान बनाकर ही उपर चढ सकता था, फिर भी सामन्त्ती अवशेष और  सासकीय नश्ल से तराईवासी संसक्र्ती  की भिन्नता से उप्जी हुई हीनता, शोषण, अपमान, तिरस्कार आदि मानसिकता  भेद से जनता पीडित थी । ऐसे मे बालिग होने के तुरन्त बाद ही राजशाही द्वारा राजेन्द्र  श्रीवास्तव  को मथुराहरिद्वार ” ग्राम पंचायत ” (भारत से थोडा अलग विशेष किसिम की व्यवस्था ,शासन की शक्तिशाली  इकाई ) का प्रधान बनाकर एक विशाल क्षेत्र सौप दिया गया। कुछ समय के बाद ये परिवार पदुम्पुर छोड कर नजदीक ही अपनी जिमिदारी मे  मुख्यालय मे स्थापित हो गया ।

       ये भरपूर युवा होते होते  बहुत ही कम समय मे केवल अपने  क्षेत्र और जिला मे  ही नही, अञ्चल और देश मे भी, केवल तराइवासियो ( भारतीय मूल के लोग  जिसे अब देशी या मधेशी कहते हैं) के ही नही, पहाडी  और थारु समुदाय के भी हितचिन्तक,  पक्षधर , सलाहकार, संरक्षक और अभिभावक हो गए ।  इस आदमी को कभी किसी चीज से  भय , चिन्ता, थकान और डर महसूस करते हुए शायद कभी किसी ने नही देखा होगा।  हर समय चुस्त दुरुस्त, निर्भीक, सरल लेकिन चट्टान । कितने भी लोगों के साथ् कहीं जाने का बस ट्रेन का किराया, होटल रेस्टुरेन्ट का बिल किसी को देने नही दिया।  चौपाल मे शुबह से ही जनता का जमघट , साधु सन्त, विभिन्न काम से मुख्यालय जाने वाले  दूर दराज के लोगों के लिए  प्रधान की चौपाल, चारपाइया, सभी सेवाएं  परिचित अपरिचित किसी के लिए भी उपलव्ध थी। पचासो लोगो के बीच बैठा हुवा यह आदमी अपने मान्य जनो को  आते देखते ही कुर्सी से उठ पड्ता था और उसे बैठा कर तभी बैठता था। चौपाल मे चाय और भण्डार मे खाना कितना चलता था इसका हिसाब नही। 

          नौकरियों का प्रबन्ध , ( जिला भर का करीब दो तिहाई शिक्षक इन्हे अपना भाग्य विधाता मानता था ) शादी विवाह तय कराने से लेकर मृत्यु संस्कार मे उपस्थिति और अन्तिम वस्त्र देने तक,जहाँ उनको जानकारी या बुलाया गया वे पहुँचे, तो गरीब, हरिजनों केवटों, मल्लाहों के बीच ,पाण्ड्वो के बीच कृष्ण की तरह सर्व भवहारी,प्रबन्धक के रुप मे दिखाई दिए। इस लिए जनसमुदाय मे इनका परिचय और इन्हे लोगों के परिचय की आवश्कता ही नही पडीजब नगरपालिका की अवधारणा आई, ये गुलरिया के मेयर बने।  इन्हे कोइ पद उस समय  यद्दपि अप्राप्य  जैसा तो नही था  लेकिन राजशक्ति से  जनहित मे इन्हे जहा रहने की इच्छा व्यक्त हुई ये, उस पर  रहे।

           इनके नेतृत्व मे पूरे जिले मे शिक्षा का विकास हुवा। तमाम नये स्कूल खुले। ये उच्च सुख सुविधा सम्पन्न तथा बाबा, पिता, का मजबूत छाया रहने के बावजूद, इन्हे  नेपाल नरेश की इच्छा से राजनीतिक क्षेत्र मे  उतार  दिए जाए के कारण  कालेज स्तर की शिक्षा स्वयं तो नही लेने पाए, लेकिन महापंच और अपने चाचा अयोध्या श्रीवास्तव सहित उच्च प्रशासनिक अधिकारियों  के साथ मिलकर  जिले मे पहला महाविद्यालय खोल्ने मे काफी कुछ किया । अपने क्षेत्र मे सडक, पुल विद्युत केलिए स्मरणिय काम किए।

          ये  नेता, समाज सेवी , तथा कलम के धनी होने के कारण  वकील जैसे ही अधिकांश काम स्वयं कर दिया करते थे और कार्यालयों मे बाबुवों के हात से फाइल लेकर आवश्यक लिखा पढी खुद  करके खडे खडे  हाकिम की  दस्खत करवा लेते थे। १०/ २० लोग हमेशा साये की तरह दिन रात इन्के साथ मे इसी लिए लगे रहते थे।  बाकी कामो के लिए वकील या अधिकारियों को कहा करते थे। इनके लिए सामाजिक सेवा मे नेपाल भारत की राजनीतिक सीमा का कोई अर्थ न था।  नेपाल के अतिरिक्त सीमावर्ती उत्तर प्रदेश के  जिला और अधिकारियों तक इनकी पहुँच विस्तारित थी और  भारत के बडे अधिकारी इनके घर जाते रहते थे । ये जिस पद पर भी हों लेकिन  “ राजेन्द्र  प्रधान ” के  नाम  से नेपाल, भारत  मे   दूर  दूर   तक  इन्हे  प्रशिद्धि  मिली  थी I      

     सन् १९९० मे देश मे फिर से बहुदलीय व्यवस्था आई और बहुदलीय शक्तियो ने अन्य पंचो के साथ् इन्हे भी काफी पीडा दी, फिर भी ये पहले तो मधेशी राजनीतिक संगठन मे नेतृत्व मे आए फिर तुरन्त बाद पूर्व पंचों ने फिर से शक्ति एकत्रित की और राजनीतिक पार्टी के रुप मे संगठित हुए। तभी सन् १९९६ मे संसदीय व्यवस्था के विरुद्ध मावोवाद का जन्म और आतंकवादी घोषित संगठन ने छापामार युद्ध ,काटमार शुरु कर दी। दुर्भाग्यवश इसी कालखण्ड मे  किसी अन्य  प्रसङ्ग मे राजदरबार हत्याकाण्ड मे राजा विरेन्द्र का वंश नाश हुवा ।  जिससे “पंच” लोग बहुत कमजोर हो गए। 

 उधर माओवादियो ने समाज के सम्पन्न, उच्च पदीय, राजनीतिक, सामाजिक और उच्च हिन्दु धार्मिक नेता,अगुवाकारों की हत्या जारी ही कर रखी थी । मन्दिर तोडफोड , वेद  जलाना , धर्म  कर्म  मृतक   संस्कार करनेवालो  को  मारना ,  कार्यालय , आर्मी ,  पुलिश ,  विद्युत ,  स्कूल  आदि  सार्वजनिक  जगहों  को  बम  विस्फोट  द्वारा  नस्ट  करना , चेतनशील, जानिस्कार कोइ भी व्यक्तिको मार देना  ।  नेपाल की समस्त तराई भूमि की हत्याओं मे से  करीब ४५ ख्यातिप्राप्त तराई वासी लोगों की हत्या हुई।जिससे सबको अपनी जान की सुरक्षा के लिए जिसको जिधर समझ मे आया उधर भाग खडा हुवा ।

           तभी विक्रम संवत २०६१ श्रावन १८ गते सोमवार , ( २ अगस्त २००४)  को  मावोवादियों  के एक समूह ने जिस्का नेतृत्व “राजेन्द्र प्रधान ” के नोकर का लडका कर रहा था , ने  गांव के एक अहिर के मृत्यु पर अन्तिम संस्कार मे गए हुए इस विलक्षण व्यक्ति को  धोखा देकर, घेर लिया और इन्होने जिन लोगों की कभी भरपूर सहायता की थी उन्ही लोगों ने अभिमन्यु की तरह इन्हे मार दिया और उस अहिर की जलती हुइ चिता मे फेंक दिया। जो दूसरों को कफन देता आया था उसे न कफन मिला, न चिता और न तो  शव यात्रियों  का साथ ही। इस घटना ने पूरे देश और भारत के एक भूखंड को हिला दिया।       

इसी  क्षेत्र मे प्रशासनिक अधिकारी , पुलिश, और इसी  समुदाय से अन्य दो लोग मारे गए  बस अन्य नेता और प्रतिष्ठित लोग भारत की ओर भाग खडे हुए तथा जिले मे आतंकवादी वर्चस्व हो गया । नेपाल मे दमदार देशी नेता और सम्भ्रान्त लोगों के खात्मे से बचेखुचे तराईवासी नेता इतने भयभीत हुए कि बहुतो ने तो बाद मे उसी हिंसक पार्टी मे प्रवेश ले लिया, और बहुतो ने कामचलाउ राजनीति पर जीना शुरु कर दिया है। और मदेशियो का अपना देशव्यापी विशाल मदेशी राजनीतिक संगठन छिन्न भिन्न हो गया है । देश की शासन व्यवस्था मे तराईवासियो की पहुच लगभग समाप्त हो गई है और वे अन्य समुदाय के शासन मे निरीह निरुपाय शासित होने लगे है ।   तराई वासी विशाल जनसंख्या को अब अपना नेता पाने के लिए नये पुस्ते की तयारी की राह देखनी होगी। 

   कुछ समय बाद मावोवादी के उच्च स्तर ने इस हत्या मे अपनी योजना से इन्कार करने की बात सुनाइ पडी।  कुछ ने तो इसे नश्लीय विभेद और राजेन्द्र  प्रधान  के  जीवित  रहते  हुए  इस  जिला  मे  किसी  अन्य को कोई अवसर नमिल्ने के भ्रम मे जकडे हुए लोगो की सहमति / इच्छा / अनिच्छा मे, बहुदलीय शासन के प्रशासनिक अधिकारियों की जानकारी मे घटना बताई ।  किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ सुनाया ।  जो कुछ भी  रहा हो लेकिन एक सत्य तो यह है की अब इस क्षेत्र मे देशियों का  उस तरह का कोइ नेतृत्वकर्ता नही है और देशी समाज ” अनाथ ” हो गया है ।   राजेन्द्र प्रधान की पत्नी कुमुद और तीन लड़के, दो लड़कियाँ तथा भाई राजकुमार , भतीजों से भरा सम्पन्न परिवार है लेकिन घर मे अन्धेरा है।

                                                              इति