कायस्थ : क्या है कौन है

       यह आलेख जिज्ञासु और अनुसन्धान कर्ताओं को आमन्त्रण है।  इसमे सुकरातीय विचार मन्थन  पद्धति  को अपनाया गया है इस लिए पाठकको प्रतेक वाक्य के  साथ प्रशन्न या दुखी होने की अपेक्षा इसको पूरा पढने के बाद ही कोई धारणा बनाना समीचीन होगा । कायस्थों के बारे मे तमाम धारणाये बनती बिगडती रही है लेकिन किसी विचार को आज तक अन्तिम सत्य नही माना गया है और न तो किसी विचार को इतनी जल्दी सर्वत्र सत्य मे परिणत होने की कोई आशा ही है।   इस आलेख को भी अन्तिम सत्य मान्ने का कोई आग्रह नही है इसे  इसी तरह की केवल एक विचार सामग्री मानना ही ठीक रहेगा ।  

       कायस्थ ब्राह्मण है /नही है  :- वेद के बाद स्म्रितियों की रचना हुई है यह बात तो शायद  निर्विवाद मानी जा रही है , और मनु स्मृति भारतीय आर्य या सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों की समस्त व्यवस्था और विधि तथा प्रक्रिया का मूल ग्रन्थ है। हमारे समस्त विधि व्यवहार मान्यताएं और जीवन सूत्र इसी  के आधार से नियन्त्रित होते है।  इसमे सम्पूर्ण समाज को चार वर्ण मे विभाजित  किया है  ब्राह्मण, क्षेत्री , वैश्य , शूद्र।  कायस्थ को इन मे से किसी भी वर्ण मे नही लिया जाता है। तब क्या यह हिन्दु ही नही हैं ?  यह प्रश्न उठ्ता है। इसलिए  समाज शास्त्रीय कुछ व्याख्याकार इनकी प्रकृति और गुण  तथा बडे बडे सन्त का जन्मदाता वर्ग, तथा बिहार मे यदा कदा पुरोहिताई करने के  आधार पर इनको ब्राह्मण  ही मानते है लेकिन सामाजिक मान्यता तो है नही। फिर भी एक तर्क यह भी देते हैं की चित्रगुप्त को ब्रह्मा की बेटी व्याही थी और ब्रह्मा तो ब्राह्मण के प्रतिक हैं , तो ब्राह्मण के पूज्य हैं चित्रगुप्त।  निसन्देह वह ब्राह्मण ही हैं और उनकी संताने भी ब्राह्मण ही हैं।

      कुछ लोगों का विचार है की नवीं दशवी सताब्दी मे जब भारत मे मुगलों का आक्रमण बढ़ा और वे लुटेरी प्रवृत्ति की जगह वही रह कर शक्ति बढाने लगे तब उन्होने ब्राह्मण से सहारा लिया।  ब्राह्मण मे से कुछ लोग जान बचाने, कुछ पद पाने और कुछ यथा स्थान शक्ति मे बने रहने के लिए मुगलों को आत्मसमर्पण कर दिया।  वे मुगलों को सहयोग करने लगे, उनके साथ सम्पर्क साहचर्य से उनकी  आहार,बिहार, प्रथा, और परम्परा के प्रति कुछ लचीले और सहिष्णु हुए , जैसे – अरबी फारसी की पढाई ,खानपान मे मुसलामानो की तरह तेल  मिर्चा मसाला के  प्रयोग, खसी के साथ साथ  मुर्गा खाना , मुसलमानो से  बहुत कम छुवाछुत और बराबर बैठना बैठना तथा उनसे निकटता , मामा की लड़की से शादी, आदि।   इस कारण नैश्ठिक और कर्मकाण्डी ब्राम्हणो ने इन लोगों को , जो सत्ता और  शक्ति के  नजदीक थे, इस लिए इनको धर्मच्युत या शूद्र मे परिणत तो   नही  कर पाए पर इनसे दूरी बनती गई, बढती गई और धीरे धीरे दूर ही हो गए।धर्म या पथ भ्रष्ट , जैसे जातिच्युत  ।

       ब्राह्मणो का यह जो नया समूह उभरता गया, इसने ब्राह्मण को ब्रह्मा के शिर से, क्षेत्रीय को भुजा से, वैश्य को जनघा से और शूद्र को पैर से उत्पन्न होने की शास्त्रीय मान्यता मे अपनी बात जोडी और कायस्थ को ब्रह्मा के समस्त काया ( शरीर ) से उत्पन्न हुवा बताकर अपने को कायस्थ नाम दिया और अपनी परिभाषा स्वयं की। तब तो ये सम्पूर्ण ब्राह्मण ही नही , ब्राह्मण पूज्य भी हो गए।

        विद्वानो का एक बडा वर्ग जिसमे  स्वामी दया नन्द  सरस्वती का नाम अग्रपंक्ति मे है , उन्होने अपने अनुसंधान के बाद जब यह कहा की  मुगल काल मे बहुत से शास्त्रो के साथ छेड्छाड हुई है, मनु स्मृति मे तो बहुत ही ज्यादा, नारी जाति का निम्नतर स्थान  मुगल काल मे लाया गया है , तब यह बात ज्यादा विश्वसनीय बन जाती है कि कायस्थ को उसमे छुवा ही नही गया । जो भी हो, अगर मनु स्मृति को मानना है तो चार वर्ण मे एक स्थान तो देना ही पडेगा, और चूंकी पिछले तीन वर्ण मे तो रखने का कोई औचित्य  जब है नही तो निर्विकल्प ब्राह्मण वर्ण मे ही रखना पडेगा।  और यदि मनु स्मृति नही मानते हैं , तो भी भगवाद्गीता और मनुस्मृति आदि शास्त्रों की परिभाषा के आधार पर कायस्थ ब्राह्मण ही है।

कायस्थ क्षेत्रीय हैं/ नही हैं :-  कायस्थों को, चूंकी इनका नाम ही जब कायस्थ है, तो समाज इनको ब्राह्मण और गैर  ब्राह्मण मे माथापच्ची क्यों करेगा ? एक तो समाज मे वर्ण व्यवस्था है नही, जाति व्यवस्था है, तो  ब्राह्मण, ठाकुर की समकक्षी कायस्थ भी एक सम्भ्रान्त जाति है, बस।  और अब जब की जाति व्यवस्था भी चरमरा रही है तो ऐसी बातों के पीछे अनुसन्धान मे समय क्यों गवाएं  ?  दूसरी बात, कायस्थ विभिन्न स्थानो मे सम्राट, राजा , जमीनदार, जागीरदार, आदि थे ही, मुगल काल मे भी ये शासन और शक्ति मे रह्ते हुए सैनिक बल मे  वृद्धि करते गए इस लिए स्वभावतः ये क्षेत्री भी समझे गए। अपने नाम मे ये लोग बहादुर भी जोड्ते है जो ठाकुरी पहचान है।   शायद इसी  गुण कर्म के आधार पर स्वामी विवेकानन्द ने इन्हे क्षेत्रीय कहा है। लेकिन फिर वही प्रश्न उठता है की क्षेत्रीय समुदाय ने भी कभी इन्हे अपने वर्ण का नही माना, तो जब सामाजिक मान्यता मे ये क्षेत्रीय नही हैं तो कुछ लोगों के कहने से क्या होगा ?

     कायस्थ वैश्य है / नही है :- कायस्थ को वैश्य मान्ने वालों की कमी नही है।बल्कि समाज की बात करे तो उत्तर प्रदेश बिहार साइड मे समाज , खास करके ब्राह्मण लोग इन्हे वैस्य कहते हैं।  ये लोग नाम मे लाल जोड्ते हैं।  इन्हे किसी वजह से लाला जी भी कहते हैं जो की सामान्यतया बनिया को कहा जाता है। गोत्र भी कश्यप कहते हैं।  इस लिए थोडा भ्रम तो बन ही जाता है।  लेकिन गुण कर्म से ये लोग बनिया से बिल्कुल ही नही मिलते हैं। बनिया जाति वर्ण वालों से नाता सम्बन्ध भी नही होता है।  इस अर्थ मे ये वैश्य बिल्कुल नही हैं। 

कायस्थ शूद्र है / नही है ;- यदि उपर्युक्त  तिनो  वर्णो मे ये नही हैं तो तार्किक रुप से  यह लोग शूद्र ही हुए क्या ?  लेकिन “शून्य का तर्क” मान्य नही होता है और उसके लिए कोई आधार प्रमाण बिल्कुल नही है।

वर्ण और जाति : एक मीमांसा :- समाज मे केवल चार किसिम के ही काम होते हैं और जो जिस प्रकार का काम करता है वह उसी वर्ग के सदस्यों के साहचर्य मे रहता है, उन्ही से आत्मीयता और लेनदेन करता है इस लिए वह प्राकृतिक रुप से उसी वर्ग का सदस्य हो जाता है  इसी मान्यता पर मनुस्मृति है । और भागवत गीता मे भगवान कृष्ण ने भी कर्मो का विभाजन बताया है जिसे हम वर्ण कहते हैं।

     ईशा पूर्व ४००, या उसके पहले और बाद का युनान। खास कर के  एथेन्स मे  सुकरात के पिता बढई का काम करते थे।  सुकरात दार्शनिक थे। हमारे ब्राह्मण जैसे ।  वे युद्ध के समय एक सामान्य क्षत्रियसैनिक की तरह देश के लिए लडे।तो  हमारी वैदिक भाषा मे वे ब्राह्मण, क्षेत्रीय और शूद्र  तीन वर्ण मे रहे।  इसी तरह से  दार्शनिक प्लेटो ने कहा है की समाज का प्रतेक घटक जब अपने योग्यता और क्षमता के हिसाब से काम करता है और दूसरे के काम मे हस्तक्षेप नही करता है तो यही न्याय है। ” अरस्तु ने नागरिक की परिभाषा की तो कहा  A citizen is one who has right to share in the executive and judicial activities of the state.( एक नागरिक वह है  जो देश के शासन और न्यायिक कार्य मे भाग लेता है ) । अर्थात जब वह देश की सेवा मे न हो, गांव का चौकीदार भी नही , तो वह नागरिक नही।  इन सब बातों से ऐसा लगता है की सभ्य देशों मे कर्म ही प्रधान था,हमारे वर्ण जैसा । जाति जैसी कोई चीज नही थी या जातीय आधार से कार्य या व्यवसाय तय नही होते  थे।   

    लेकिन जैसे जैसे जनसंख्या और  समाज आगे बढ़ा , कर्म अनुसार केवल चार क्षेत्र मे सिमट्ना कठिन हो गया। जन्म के आधार पर संगठित होना सरल हो गया और जाति बनी।  इसको ऐसे भी कह सकते हैं की आदमी जैसा और  जो काम करता है उसका उसी के जैसे आदमी से परिचय , सम्पर्क, घनिष्टता , लेनदेन, सुख दुख का बटवारा , और  नाता रिस्ता बनता जाता है।  यह मानवीय स्वभाव है, चेतना अपने ही समान तत्व पर आकर्षित होती है। इसी स्वभाव ने पहले वर्ण और फिर जाति बनाई है।  विश्व भर मे जातियाँ  हैं , भले ही सब जगह एक जैसा नही है, सब जगह छुवाछूत नही है तो भी किसी न किसी आधार पर समाज बटा है।  यद्दपि जाति व्यवस्था को आज खराब बताकर इसके उन्मूलन का पहल भले ही हो रहा हो लेकिन इसका उन्मूलन कभी नही होगा, वर्ण की जगह जैसे जाति बन गई ऐसे ही मानव स्वभाव और व्यवहार इस  जाति व्यवस्था को जब कभी  परिवर्तित कर देगा तब डाक्टर, इन्जिनियर, नर्स, शिक्षक,मिस्त्री, ड्राइवर, कनडेक्टर,पाइलेट, क्लर्क, प्रशासक, कृषक , भण्डारक, और प्रतेक व्यवसाय के खण्डिकरण के अलग अलग कोई भी नाम से अलग अलग कार्यकारी वर्ग बनेगे और वर्ग ही जातीय संगठन जैसे काम करेगे।   मानव जहाँ भी रहेगा संगठन आप ही विकसित हो जाता है , कोई न कोई रुप्  मे संगठन मे ही रहना उसका स्वभाव है, ।  वर्ण और जाति आखिर संगठन ही तो हैं। ये जब निस्तेज होंगे तो कोई अन्य रुप आएगा।

      शायद कुछ ऐसा ही हुवा हो।  नितान्त प्रारम्भिक समाज मे चार  किसिम के ही काम रहे हों। तब मनुस्मृति मे  चार वर्ण लिखे गए हों।  उस समय  संगठित सरकार न रही  हो तब   सरकार का  कार्यकारी वर्ग आवश्यक न रहा हो बाद मे लिखे पढे बुद्धिजीवी और व्यवस्थापकीय पक्ष की  आवश्यकता  पड़ने पर  जिस वर्ग का विकास हुवा उसे कायस्थ कहा गया हो ।  चूंकि मनुस्मृति   किसी युग मे लिखी जा चुकी थी इस लिए उसमे पंचम वर्ण लिखा नही जा सकता था ,  और वर्ण व्यवस्था कमजोर होकर उसकी जगह पर जाति व्यवस्था की मान्यता स्थापित हो जाने के कारण कायस्थ जाति भी सम्भ्रान्त जाति हो गई ,  उसे वर्ण की आवश्यकता ही नही पडी।

     तो तमाम ऐसी जातियाँ , उपजातियाँ है जो अनपढ अशिक्षित, कृषक और मजदूर थी लेकिन इनको भी कोई वर्ण नही मिला तो ये सब  शूद्र मे गिनी गई थी उनमे से आज कुछ  तो तर्क वितर्क और कुछ को  पौराणिक आख्यान से  साद्रिश्यता और तादाम्य रखने वाले  कुछ अपने  को वैश्य, और कुछ क्षेत्रीय मानने लगे  हैं। अहिर, ग्वाल, गडरिया, कुर्मी, भुर्जी, गोडिया, लोध , कहार, लोनिया, आदि उत्तर प्रदेश मे तथा अन्य प्रदेश की मिलाकर कई सौ तो  होगी।  मनुस्मृति मे सम्पूर्ण विश्व के  भविष्य और  सभी युग की आवश्यकतावों को समेटा तो नही जा सका था। शास्त्रों को संशोधित होना ही पड्ता है।  इसी लिए वर्ण की जगह पर जाति और जाति की जगह पर अब कुछ अन्य की सोच विकसित हो रही है ।

          वर्ण चाहिए क्यों ?  जो जब अस्तित्व मे आता है तब उसकी परिभाषा और  व्याख्या होती है  और कसौटी पर चढाया जाता है।  वह  इतिहास के सभी  संदर्भों से तादाम्य नही भी रख सकता है क्योंकि वह नई आवश्यकता या परिस्थिति का परिणाम होता है और उसे अपने वर्तमान  और भविष्य से ही निपटना पड्ता है।  इसलिए कायस्थ नाम की संज्ञा जिस्का जन्म वैदिक युग से हजारों वर्ष बाद हुवा, उससे सम्बन्धित लोग  पहले किस रुप रंग के थे वह  वैदिक या पौराणिक युग मे किस वर्ण मे था यह तो प्रश्न ही गलत है । उसके पुरखे भी वैदिक युग मे  केवल मनुष्य थे और वर्तमान को देखकर अगर भूतकाल का आँकलन करना ही हो तो वे ब्राह्मण या क्षेत्रीय ही रहे होंगे। आखिर मे वर्ण के पीछे पडने से लाभ क्या है ?

     आवश्यकता :- (१)  हाँ, आज के विज्ञान की अगर मदत ली जाए और डीयेनये कि आधुनिक जांच कोई कराए तो व्यक्तिगत स्तर पर जरूर कुछ उत्तर प्राप्त हो सकता है लेकिन उस निष्कर्ष के परिणाम का उस व्यक्ति पर क्या असर पड़ेगा ?  यह बहुत चुनौती का विषय है। 

अब होना क्या चाहिए :- संगठन मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।  और संसार अब बहुत छोटा हो गया है जिसके कारण एक जगह की घटना का प्रभाव तुरन्त दुनिया भर मे फैलता है । अन्य जातियाँ भी कायस्थ के उपनाम को प्रयोग करने लगी है जैसे भुर्जी सकसेना, हज्जाम श्रीवास्तव लिखते पाए गए हैं।   इस लिए वर्तमान मे  कमसे कम जातीय आधार पर कायस्थ को एकताबद्ध होना चाहिए।  अपने नाम के पीछे कायस्थ लिखना शुरु कर देना चाहिए। 

                     (२) नेपाल मे काठमांडू उपत्यका मे नेवार समुदाय  का गढ है। विशेषतया भक्तपुर मे।  यह सम्पूर्ण एक समाज है। इनमे पुरोहित, शासक, प्रशासक, व्यापारी, हज्जाम , चाण्डाल, भंगी आदि के अलग अलग उपजातीय नाम हैं। इनमे “कायस्थ” और “श्रेष्ठ”  भी है।  नेवार भी नाम मे लाल, दास, प्रसाद और बहादुर आदि लगाते हैं। समस्त नेपाल मे ब्राह्मण क्षेत्री के बाद संख्या, साधन, शक्ति मे इन्ही का प्रमुख स्थान है। ये यद्दपि हिन्दु देवी देवता की पूजा करते हैं लेकिन  ईनकी अपनी भाषा, लिपि , मान्यताएं , सब अलग हैं।  लेखक के पड़ोसी जिमीदार तारा प्रसाद कायस्थ कई बार हम लोग एक ही  हैं कह चुके हैं।  कुछ “श्रेष्ठ” भी तुम लोगों मे कुलश्रेष्ठ होता है तो हम लोग एक ही   होना चाहिए कहते हैं । इधर कुछ दिनो से राजनीतिक लाभ के लिए ये लोग अपने को जनजाति कहने लगे हैं।   इस जाति के बारे मे कहीं अनुसन्धान हुवा है नही ? न हुवा हो तो अनुसन्धान होना चाहिए।

                (३) स्थान के नाम से भी  जैसे  मालवा से मालवीय। शिक्षा के आधार मे पण्डित, आचार्य, उपाध्याय, शास्त्री आदि । साहित्यिक उपनाम से जैसे बच्चन ,सुमन । पुरस्कार सम्मान के आधार पर जैसे लाल साहेब, राय बहादुर, दीवान , आदि  जातियाँ बन जाती हैं ऐसे लोगों को  सही पहचान बनाए रखना चाहिए और ऐसे शब्दों को  इन्वर्टेड कामा के अन्दर अन्त मे लिखना चाहिए ।  ये लोग अपने साथ साथ् अपने बच्चों का भी जाति परिवर्तन करके उनके वन्शाधिकार को छीन रहे होते हैं ।  जो घोर अपराध है। इसका ध्यान रखना चाहिए।    

                                                                                इति     ।